अब क्या चुनाव ही खतरे में है?
हैरानी की बात नहीं है कि दिल्ली चुनाव के सिलसिले में कम-से-कम एक बात पर सभी सहमत होंगे। वह यह कि भाजपा, इस चुनाव को जीतने के लिए सचमुच कोई कसर नहीं छोड़ने वाली है। मोदी-शाह की भाजपा के संबंध में यह कथन एक तरह से रूढ़ हो चुका है। अक्सर इससे अर्थ यह लगाया जाता है कि वर्तमान सत्ताधारी पार्टी हरेक चुनाव, छोटे से छोटा चुनाव भी, अपनी पूरी ताकत झोंक कर लड़ती है। इसे मोदी-शाह की भाजपा की एक महत्वपूर्ण विशेषता ही माना जाने लगा है, जो उसे अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों पर जबर्दस्त बढ़त दिला देती है। इस सिलसिले में, जाहिर है कि उसके घनघोर साधनों तथा मुख्यधारा के मीडिया पर लगभग पूर्ण नियंत्रण की मदद से, इस ”कोई कसर नहीं छोड़ने” के हिस्से के तौर पर कई ऐसी चीजों को सामान्य बनाकर स्वीकार्य बना दिया जाता है, जिन पर मोदी-पूर्व भारत में किसी-न-किसी हद तक सवाल जरूर उठते थे।
इनमें एक है चुनाव में संसाधनों का इस तरह झोंका जाना, जिसके सामने चुनाव कानून के अंतर्गत देश में लगी चुनाव खर्च की सीमाएं और उससे संबंधित चुनाव आयोग की सारी कसरतें, एक मजाक ही नजर आने लगी हैं, बल्कि मजाक कहलाने भी लगी हैं। चुनावी बांड की व्यवस्था ने, जिसे अब सुप्रीम कोर्ट ने अवैध करार देकर बंद करा दिया है, चुनावी चंदे के प्रवाह को पूरी तरह से इकतरफा सत्ताधारी पार्टी के पक्ष में मोड़ने के जरिए, इस मजाक को और बहुत ऊपर उठा दिया। अब शायद ही कोई इसकी याद दिलाने की जेहमत उठाता होगा कि खर्च की इन सीमाओं का मकसद, चुनाव में धनबल के खेल पर अंकुश लगाना तो था ही, चुनाव के लिए मुख्य प्रतिद्वंद्वियों के लिए एक हद तक बराबरी का मैदान मुहैया कराना भी था।
एक और चीज, जिसे नये-नये चाणक्यों को अधिष्ठित करने के जरिए सामान्य और इस तरह स्वीकार्य बना दिया गया है, चुनाव का राजनीति और विचारधारा से ऊपर उठा दिया जाना है, जहां जीत के लिए कोई भी पैंतरा, कोई भी तिकड़म जायज है। चुनाव से ऐन पहले दल-बदल से लेकर, निहायत नंगई से जातिवादी गोटियां बैठाए जाने तक, सभी कुछ इसमें आ जाता है। कहने की जरूरत नहीं होनी चाहिए, हालांकि इसकी याद दिलाने की आज बहुत जरूरत है कि इस सब को सामान्य बनाए जाने, जनता की इच्छा की अभिव्यक्ति के रूप में हमारे चुनाव के जनतांत्रिक सार को, पहले ही काफी खोखला कर दिया था।
बहरहाल, मोदी-शाह की भाजपा इतने पर भी नहीं रुकी है। चुनाव आयोग को अपनी मुट्ठी में करने के बाद, पिछले अनेक वर्षों में उसने चुनावी नियम-कायदों के हिसाब से जो कुछ अवैध था, उसका भी सहारा लेने को सामान्य बनाना शुरू कर दिया। बेशक, इसकी शुरूआत अपेक्षाकृत छोटी चीजों से हुई। जैसे चरणवार चुनाव में चुनाव प्रचार की खामोशी के दिनों में, संबंधित क्षेत्र के ऐन बगल के क्षेत्र में जाकर, प्रचार करना और उसका मीडिया के जरिए, खामोशी के इलाकों समेत हर जगह प्रचार कराना ; मतदान करने के लिए जाने को रैली में बदल देना ; मतदान केंद्र के निषेध के दायरे में चुनाव चिन्ह का प्रदर्शन करना आदि, आदि। यह सब धीरे-धीरे चुनावी विधि-निषेधों में बढ़ती सुरंग बनाए जाने का मामला था।
बहरहाल, इस तरह चुनावी पाबंदियों को भीतर से पर्याप्त रूप से खोखला करने के बाद, 2017 के उत्तर प्रदेश के चुनाव से कब्रिस्तान-श्मशान, दीवाली-रमजान करने के सांप्रदायिक इशारों के जरिए, चुनाव में धार्मिक अपील तथा सांप्रदायिकता का सहारा लेने पर लगी कानूनी रोक को लांघने की ओर तेजी से कदम बढ़ाए गए। इसके साथ ही सर्जिकल स्ट्राइक के चुनावी इस्तेमाल के जरिए, चुनावी कानूनों के उल्लंघन का एक और मोर्चा ही खोल दिया गया। इसके बाद, 2019 के आम चुनाव में तो, चुनाव प्रचार में सेना तथा उसकी कार्रवाइयों के इस्तेमाल पर लगी पाबंदियों की सरासर धज्जियां ही उड़ायी गयीं। कागजों में लिखी तमाम पाबंदियों के बावजूद, 2019 का पूरा का पूरा चुनाव, पुलवामा-बालाकोट की पिच पर ही लड़ा गया और जोरदार तरीके से जीता भी गया। इस दौरान, शीर्ष स्तर पर चुनाव आयोग को पूरी तरह से सत्ता पक्ष के साथ किया जा चुका था और अशोक लवासा के रूप में आयोग में असहमति की इकलौती आवाज को बाहर किया जा चुका था।
इसी यात्रा को आगे बढ़ाते हुए, 2024 के आम चुनाव में सत्ताधारी पार्टी ने विपक्ष के खिलाफ सांप्रदायिक दुहाई को अपना मुख्य हथियार बना लिया। और यह सिलसिला, पिछले ही महीने हुए महाराष्ट्र तथा झारखंड के चुनाव तक भी जारी था। इसके लिए मैदान तैयार किया गया था, चुनाव से ऐन पहले, चुनाव आयोग में दो सत्तापक्ष के लिए मनमाफिक सदस्यों की भर्ती के जरिए। इसी तरह की भर्ती सुनिश्चित करने के लिए, सत्ताधारी पार्टी ने संसद में अपने बहुमत का इस्तेमाल कर, चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के संबंध में एक नया कानून सिर्फ इसलिए बनाया था, ताकि चुनाव आयोग की नियुक्तियों में निष्पक्षता लाने के पक्ष में चुनाव आयोग के हस्तक्षेप के बाद, तीन सदस्यीय नियुक्ति समिति में प्रधानमंत्री के साथ, विपक्ष के नेता तथा सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को रखे जाने की जो व्यवस्था बनी थी, उसेे फिर से सरकार के पक्ष में झुकाया जा सके। इस कमेटी में मुख्य न्यायाधीश को हटाकर, प्रधानमंत्री के अलावा, उनके द्वारा नामजद उनके ही एक मंत्री को शामिल कर लिया गया था। हैरानी की बात नहीं है कि उसके बाद से चुनाव आयोग ने खुद प्रधानमंत्री के स्तर तक से खुल्लमखुल्ला धर्म की दुहाइयों तथा सांप्रदायिक अपीलों का सहारा लिए जाने पर चूं तक नहीं की।
जाहिर है कि इस सब ने जनता की जानकारीपूर्ण इच्छा की अभिव्यक्ति के रूप में चुनाव के रहे-सहे सार को भी नष्ट कर दिया है। यह कहना गलत नहीं होगा कि इस मुकाम पर पहुंचकर चुनाव, जनतंत्र का खोल भर रह जाता है, जो भीतर से खोखला है। लेकिन, चुनाव जीतने के लिए कुछ भी करने की मोदी-शाह की भाजपा की तत्परता, जैसे अब जनतंत्र के इस खोल को भी नष्ट करने की ओर बढ़ रही है। चुनाव में धांधली की आम शिकायतों और ईवीएम के जरिए गड़बड़ी की आम शिकायतों को, उनमें काफी वजन होने के बावजूद, बहस के लिए यहां हम अगर छोड़ भी दें तो भी, चुनाव मात्र पर दुतरफा हमले की शिकायतों से उठे गंभीर सवालों को, जनतंत्र की परवाह करने वाला कोई भी व्यक्ति अनदेखा नहीं कर सकता है।
इस हमले का एक बढ़ता हुआ पहलू, जो खासतौर पर उत्तर प्रदेश में आम चुुनाव में और अभी पिछले महीने हुए उपचुनाव में और भी खुलेआम सामने आया था, छांटकर तबके विशेष, मुस्लिम अल्पसंख्यकों को वोट ही देने से रोकने का था। उत्तर प्रदेश में इसके विशेष रूप से सामने आने की वजह यही थी कि इसके लिए पुलिस-प्रशासन की गैर-कानूनी काम करने की जिस तरह की तत्परता की जरूरत होती है, वह लंबे समय से तथा बिल्कुल तानाशाहीपूर्ण तरीके से, सत्ताधारी भाजपा द्वारा प्रशासित राज्यों में ही संभव है। चुनाव को ही गैर-चुनाव बनाने वाले इसी हमले का दूसरा पहलू, पुन: शासन पर नियंत्रण का ही इस्तेमाल कर, टार्गेटेड तरीके से संभावित रूप से विरोधी वोटों को, जाहिर है कि सबसे बढ़कर अल्पसंख्यकों के वोटों को काटना और बाहर से अपने समर्थकों के नाम मतदाता सूचियों में जुड़वाना है। यह चुनाव के नतीजों को अपने पक्ष में बदलने के लिए, चुनाव करने वाली जनता का ही बदला जाना है। विपक्षी पार्टियों और खासतौर पर उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी द्वारा मतदाता सूचियों में टार्गेटेड हेराफेरी की आम तौर पर शिकायतें किए जाने के अलावा अब कम-से-कम तीन लोकसभा क्षेत्रों में, जहां बहुत कम अंतर से हार-जीत का फैसला हुआ था, ऐसी टार्गेटेड मतदाता सूची धांधली के साक्ष्य मीडिया रिपोर्टों में सामने आ चुके हैं। इनमें मेरठ और फर्रुखाबाद और पुरानी दिल्ली की सीटें शामिल हैं।
बहरहाल, अब दिल्ली के चुनाव तक आते-आते, इस खेल को देश की सत्ताधारी पार्टी ने बहुत ऊंचे स्तर पर पहुंचा दिया लगता है। नई दिल्ली की विधानसभाई सीट, जहां से अरविंद केजरीवाल चुनाव लड़ रहे हैं, इस खेल में खासतौर पर निशाने पर है। यह दूसरी बात है कि दिल्ली में सीमित ही सही, आम आदमी पार्टी के पास प्रशासनिक ताकत होने और आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं के जमीनी स्तर पर पर्याप्त रूप से सक्रिय होने के चलते, इस खेल का किसी हद तक भंडाफोड़ भी हो गया है, फिर भी जो सचाई सामने आयी है वह डरावनी है। इस एक विधानसभाई क्षेत्र में, सैकड़ों लक्षित वोट कटवाने के साथ-साथ, हजारों की संख्या में वोटर रातों-रात भर्ती कराने का खेल खेला गया है और इनमें से कई हजार वोट तो केंद्रीय मंत्रियों, भाजपा सांसदों तथा पूर्व-सांसदों के सरकारी आवासों के पते पर ही दर्ज कराने का खेल खेला गया है।
कहने की जरूरत नहीं है कि यह सब बहुत ही व्यवस्थित तरीके से गड़बड़ी किए जाने का ही इशारा करता है। और यह गड़बड़ी कितने व्यापक स्तर पर की गयी है और कहां तक कामयाबी से की जा चुकी है, यह जानने का कोई उपाय नहीं है। इन दुश्चिंताओं को बढ़ाने वाला एक आंकड़ा जरूर सामने आया है। छ: महीने पहले ही हुए लोकसभा चुनाव और अब होने जा रहे विधानसभा चुनाव के बीच ही, दिल्ली में मतदाताओं की संख्या में पूरे 5 फीसद की बढ़ोतरी हो चुकी है! इतनी अवधि में मतदाताओं की संख्या में इस स्तर की बढ़ोतरी, कम से कम स्वाभाविक तो किसी भी तरह से नहीं है। याद रहे कि महाराष्ट्र में लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों के बीच, मतदाताओं की संख्या में ऐसी ही अस्वाभाविक बढ़ोतरी देखी गयी थी। और विपक्षी पार्टियों की शिकायत है कि जिन एक सौ चालीस के करीब सीटों पर वोट में इस तरह की बढ़ोतरी देखने को मिली थी, उनमें से अस्सी फीसद सीटें भाजपा के नेतृत्ववाले सत्ताधारी गठजोड़ को मिली थीं।
चुनाव करने वाली जनता का ही बदला जाना, जनतंत्र के लिए खतरे की आखिरी घंटी है। ब्रेख्त की एक पैनी व्यंग्य कविता की पंक्तियां हैं—”क्यों न सरकार जनता को भंग कर दे/ और अपने लिए एक नयी जनता चुन ले।” मोदी-शाह की भाजपायी सत्ता, देश की जनता को ही भंग कर, अपने लिए एक नयी जनता चुनने की ओर बढ़ चली है। क्या दिल्ली की जनता उसे ऐसा करने देगी?
*(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)*