ग्रामीण अंचल में आज भी जीवंत है गौरा गौरी जगाने की परम्परा

नगरी/सिहावा (किशन मगेन्द्र)- वैसे तो दीपों का पर्व दीपावली जगमगाती दीयों के बीच धन की देवी लक्ष्मी की पूजन एवं भगवान राम द्वारा बुराई के प्रतीक रावण का वध कर अयोध्या लौटने की खुशी में पूरे भारतवर्ष में हर्षोल्लास व उत्साह के साथ मनाया जाता है इसी के साथ ही छत्तीसगढ़ की प्राचीन संस्कृति में गौरी गौरा के विवाह पर आधारित भी है यह पर्व।उमरगांव के ग्रामीण कृष्णा मारकोले, अंगेश हिरवानी, देवेन्द्र सेन, महेश अग्रवाल, सुरेश कुमार मरकाम, भगवान कुंजाम, शोभित राम ने बताया कि छत्तीसगढ़ के ग्रामीण अंचलों में दीपावली मनाने की अपनी संस्कृति, परंपरा व रीति रिवाज है। छत्तीसगढ़ में लक्ष्मी पूजन के दिन को ‘सुरहुति’ के नाम से जाना जाता है, इस दिन रात्रि में भगवान शिव का गौरा और माता पार्वती की गौरी के रूप में प्रतिमूर्ति तैयार कर मनमोहक झांकी व कलश यात्रा निकालकर बाजे गाजे के साथ गौरा चौरा में ले जाकर विराजित किया जाता है, इस दिन की तैयारी लगभग एक सप्ताह पूर्व से शुरू की जाती है
गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ का नगरी सिहावा आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र है जिसके कारण गौरा जगाने की अधिकांश परंपरा का निर्वहन आदिवासी भाइयों व बहनों के द्वारा किया जाता है, गौरा जगाने के लिए गांव के युवक युवती गांव के चौराहे पर निर्मित गौरा चावरा के पास एकत्रित होकर बैगा, झाँकर व पुजारी के द्वारा पूजा पाठ करके पारंपरिक गौरा गीतों के माध्यम से गंधर्व बाजे में बजते पारंपरिक धुनों के बीच गौरा गौरी को जगाने के साथ-साथ गौरा गौरी को रात्रि में विश्राम के लिए पारंपरिक गीतों के माध्यम से सुलाया जाता है, इस बीच कई युवक को देव व युवती को डड़ईया देव भी आता है तथा गौरा चावरा में एकत्रित कलशों में रखे चाँवल से निर्मित फरा रोटी को खाते हुए आनंद लेते हैं एवं बाजे की धुन में नाचते भी हैं साथ ही अपने हाथ पैर को रस्सी जिसे ‘साकड़’ कहा जाता है उसमें मारते हैं यह क्रम गौरा जगाने के दिन से रात्रि के प्रथम पहर चलता है, जिसमे आदिवासी भाइयो की भागीदारी के साथ साथ गांव के अन्य वर्ग की भाइयो की भी भुमिका होती है, इस दिन सभी लोग एकता व भाईचारे के साथ मिलजुलकर का गौरा जगाने के अवसर का लुत्फ उठाते है।गौरा जगाने का सिलसिला कुछ ग्रामीण अंचल में शुरू हो गया है, किन्तु अब समय का फेर है और आधुनिकता का प्रभाव इस परम्परा पर हावी होने लगा है। अब मात्र औपचारिकता बनकर रह गया है क्योंकि पहले लोग इस त्यौहार को परंपरा के अनुसार उत्साह व जोश के साथ भाग लेते थे किंतु अब उसमें पुरानी जोश व उत्साह दिखाई नहीं देता,पहले इसकी तैयारी दीपावली के एक सप्ताह पहले होती थी।
गौरी गौरा की जगाने की परंपरा को आधुनिक युग में अंधविश्वास का नाम भले ही दें किंतु हमारी पूर्वजों के द्वारा परंपरा के रूप में दी गई इस धरोहर को क्रियान्वित कर रहे हैं जिसमें पूर्णरूपेण लोक कल्याण की भावना छिपी हुई है जो हमारी ग्रामीण जीवन की विविधता में एकता का संदेश देता है।

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